हिंदू धर्म के पुराणों में वर्णित भक्त प्रह्लाद और भगवान नरसिंह की कथा न केवल भक्ति की शक्ति को दर्शाती है, बल्कि यह सत्य के मार्ग पर अडिग रहने का संदेश भी देती है। यह कथा असुर राज हिरण्यकश्यपु के अहंकार, उसके पुत्र प्रह्लाद की अटूट विष्णु भक्ति, और अंत में धर्म की विजय का सजीव चित्रण है।
हिरण्यकश्यप का जन्म महर्षि कश्यप और दिति के यहाँ हुआ था। वह हिरण्याक्ष का ज्येष्ठ भ्राता था। दिति ने अपने पुत्रों को विष्णु से बदला लेने के संकल्प के साथ जन्म दिया था, क्योंकि भगवान विष्णु ने पहले हिरण्याक्ष का वध किया था।
हिरण्याक्ष की मृत्यु भगवान विष्णु के वराह अवतार के हाथों हुई थी। इस घटना ने हिरण्यकश्यप के हृदय में विष्णु के प्रति गहरी घृणा भर दी। उसने संकल्प लिया कि वह स्वयं को अमर बनाकर विष्णु और उनके भक्तों का सर्वनाश करेगा।
हिरण्यकश्यप ने अपने तप और शक्ति से तीनों लोकों स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल पर अपना अधिकार जमा लिया था। उसने कई राजाओं और योद्धाओं को परास्त किया, भव्य महलों और मंदिरों का निर्माण कराया, और अपने राज्य में नई प्रशासनिक व्यवस्थाएँ लागू कीं। उसके शासन में असुरों का साम्राज्य अत्यंत समृद्ध और शक्तिशाली था, लेकिन अहंकार और अत्याचार भी चरम पर था।
हिरण्यकश्यप की पत्नी: कयाधू
हिरण्यकश्यप की पत्नी का नाम कयाधू था, जो नागराज की पुत्री थीं। उनका विवाह राजनीतिक कारणों से हुआ था, ताकि नागराज अपनी प्रजा की रक्षा कर सकें। कयाधू स्वयं भगवान विष्णु की भक्त थीं, और हिरण्यकश्यप से विवाह उनके लिए एक बड़ा आघात था।
हिरण्यकश्यप के तपस्या के समय, जब वह अमरता प्राप्त करने के लिए वन में गए, कयाधू गर्भवती थीं। देवताओं ने असुरों पर हमला किया और कयाधू को बंदी बना लिया। इंद्र ने उन्हें स्वर्ग ले जाने का प्रयास किया, लेकिन मार्ग में नारद मुनि ने उन्हें बचाया। नारद मुनि ने कयाधू को अपने आश्रम में आश्रय दिया और उनके गर्भस्थ शिशु (प्रह्लाद) को भगवान विष्णु की भक्ति का उपदेश दिया। यही कारण था कि प्रह्लाद जन्म से ही विष्णु भक्त बने।
पात्र | विवरण |
कयाधू | नागराज की पुत्री, हिरण्यकश्यप की पत्नी, विष्णु भक्त |
विवाह | राजनीतिक कारणों से, नागराज ने प्रजा की रक्षा हेतु किया |
संघर्ष | हिरण्यकश्यप के तप में, गर्भवती अवस्था में नारद मुनि के आश्रम में रहीं |
हिरण्यकश्यप की तपस्या और वरदान
अपने भाई की मृत्यु के बाद हिरण्यकश्यप ने अमरता प्राप्त करने के लिए मंदराचल पर्वत पर अत्यंत कठोर तपस्या की। वह हजारों वर्षों तक अंगूठों पर खड़े होकर तप करते रहे, जिससे उनकी देह पर घास, बांस और दीमक का घर बन गया था। उनकी तपस्या से ब्रह्मांड में त्राहि-त्राहि मच गई नदियाँ सूखने लगीं, पृथ्वी कांपने लगी, और देवता भयभीत हो गए।
ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा। हिरण्यकश्यप ने अत्यंत चतुराई से मृत्यु से बचने के लिए कई शर्तें रखीं:
- न दिन में, न रात में मारा जाऊँ।
- न घर के भीतर, न बाहर मारा जाऊँ।
- न किसी मानव, न पशु, न पक्षी द्वारा मारा जाऊँ।
- न किसी अस्त्र, न शस्त्र से मारा जाऊँ।
- न पृथ्वी पर, न आकाश में मारा जाऊँ।
- न किसी जीवित, न निर्जीव वस्तु से मारा जाऊँ।
ब्रह्मा जी ने यह वरदान दे दिया, लेकिन अमरता नहीं दी। इस वरदान के बाद हिरण्यकश्यप का अहंकार चरम पर पहुँच गया और उसने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया।
हिरण्यकश्यप का अत्याचारी शासन
वरदान प्राप्त करने के बाद हिरण्यकश्यप ने अपने साम्राज्य में भगवान विष्णु की पूजा पर रोक लगा दी और अपनी पूजा अनिवार्य कर दी। जो भी उसकी आज्ञा का उल्लंघन करता, उसे कठोर दंड मिलता। उसने देवताओं को परास्त कर स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
कयाधू के गर्भ में रहते हुए ही नारद मुनि से भगवान विष्णु की भक्ति का संस्कार प्रह्लाद को मिला। जन्म के बाद भी प्रह्लाद बचपन से ही विष्णु के परम भक्त रहे। वे सदा भगवान का नाम जपते रहते, जिससे हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित रहता था।
प्रह्लाद को गुरु शुक्राचार्य के पुत्रों के पास शिक्षा के लिए भेजा गया, जहाँ उन्हें असुरों की नीति, राजनीति, युद्धकला आदि सिखाई जाती थी। परंतु प्रह्लाद सदा भगवान विष्णु की भक्ति में ही लीन रहते। उनके मित्र भी उनके साथ भजन-कीर्तन में सम्मिलित होते थे, जिससे गुरुओं और पिता दोनों को चिंता होती थी।
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए अनेक प्रयास किए:
भक्त प्रह्लाद को विष पिलवाने का प्रयास
हिरण्यकश्यप का क्रोध उस समय चरम पर पहुँच गया जब उसने देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद, उसकी आज्ञा के विरुद्ध, निरंतर भगवान विष्णु का नाम जपता है। उसने प्रह्लाद को मारने के लिए सबसे पहले विष दिलवाने का आदेश दिया।
एक भव्य महल के कक्ष में, जहाँ सुवर्ण कलशों में अमृत और विष दोनों रखे जाते थे, असुर रसोइयों को बुलाया गया। हिरण्यकश्यप ने उन्हें आदेश दिया कि वे प्रह्लाद के भोजन या पेय में घातक विष मिला दें। प्रह्लाद को बुलाया गया। उसके सामने भोजन परोसा गया, जिसमें विष मिला हुआ था।
प्रह्लाद ने भोजन ग्रहण करने से पूर्व भगवान विष्णु का स्मरण किया और प्रार्थना की, “हे प्रभु! यदि मेरी भक्ति सच्ची है, तो यह विष मुझे हानि न पहुँचाए।” उसने शांत भाव से भोजन ग्रहण किया।
कुछ ही समय बाद, जब सबको लगा कि प्रह्लाद अब जीवित नहीं रहेगा, वह उसी तरह शांत और प्रसन्नचित्त बैठा रहा। विष का कोई प्रभाव न देखकर महल में आश्चर्य और भय का माहौल छा गया। हिरण्यकश्यप का क्रोध और बढ़ गया, परंतु प्रह्लाद की भक्ति और विश्वास पहले से भी दृढ़ हो गया।
हाथियों के पैरों तले कुचलवाने का प्रयास
विष से प्रह्लाद को हानि न पहुँची, तो हिरण्यकश्यप ने एक और भयानक योजना बनाई। उसने अपने साम्राज्य के सबसे विशाल और क्रूर हाथियों को मंगवाया।
राजमहल के प्रांगण में एक बड़ा मैदान था, जहाँ सैकड़ों सैनिक और दरबारी एकत्र थे। बीच में प्रह्लाद को बाँधकर खड़ा किया गया। उसके चारों ओर विशाल, गुस्सैल हाथियों को लाया गया, जिनकी आँखों में क्रोध और भूख झलक रही थी।
हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि इन हाथियों को प्रह्लाद के ऊपर छोड़ दिया जाए। हाथियों के महावतों ने उन्हें उत्तेजित किया। वे गर्जना करते हुए प्रह्लाद की ओर दौड़े।
सभी दर्शक भय और आशंका से देख रहे थे। प्रह्लाद ने आँखें बंद कर भगवान विष्णु का स्मरण किया। जैसे ही हाथी उसके पास पहुँचे, वे अचानक शांत हो गए। उन्होंने प्रह्लाद को सूँड़ से छूकर प्रणाम किया और उसके चारों ओर बैठ गए, मानो उसकी रक्षा कर रहे हों।
यह दृश्य देखकर सभी दंग रह गए। हिरण्यकश्यप का अहंकार और भी आहत हुआ, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति और निखर गई।
ऊँचे पर्वत से गिरवाने का प्रयास
हाथियों से भी प्रह्लाद को कोई हानि नहीं पहुँची, तो हिरण्यकश्यप ने सोचा कि उसे किसी ऊँचे पर्वत से नीचे फेंक दिया जाए, जिससे उसकी मृत्यु निश्चित हो जाए।
असुर सैनिक प्रह्लाद को बाँधकर एक विशाल पर्वत की चोटी पर ले गए। नीचे गहरी खाई थी, जिसमें नुकीले पत्थर और काँटेदार झाड़ियाँ थीं। ऊपर से देखने पर नीचे गिरना निश्चित मृत्यु जैसा था।
सैनिकों ने प्रह्लाद को चोटी के किनारे खड़ा किया। चारों ओर घना जंगल था, पक्षियों की चहचहाहट और हवा की सनसनाहट वातावरण को और भयावह बना रही थी।
प्रह्लाद ने भगवान विष्णु का नाम लिया और आँखें बंद कर लीं। सैनिकों ने उसे धक्का दे दिया। वह हवा में गिरता गया, परंतु जैसे ही वह नीचे पहुँचा, उसे लगा कि कोई अदृश्य शक्ति ने उसे थाम लिया है। वह सुरक्षित भूमि पर आ गया, उसके शरीर पर खरोंच तक नहीं आई।
सैनिक और दरबारी यह देखकर अवाक रह गए। प्रह्लाद ने भगवान को धन्यवाद दिया और शांतिपूर्वक महल लौट आया।
साँपों के बीच डलवाने का प्रयास
अब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए और भी खतरनाक उपाय अपनाया। उसने विषैले साँपों से भरे एक गहरे कुएँ में प्रह्लाद को डालने का आदेश दिया।
दृश्य वर्णन
महल के पास एक गहरा कुआँ था, जिसमें सैकड़ों विषैले नाग और सर्प डाले गए थे। कुएँ के चारों ओर असुर सैनिकों और दरबारियों की भीड़ थी। प्रह्लाद को रस्सियों से बाँधकर कुएँ के ऊपर लाया गया।
हिरण्यकश्यप ने गर्जना की, “अब देखता हूँ, तेरा विष्णु तुझे कैसे बचाता है!” प्रह्लाद ने भगवान विष्णु का नाम लिया और मुस्कराते हुए कुएँ में कूद गया।
साँपों ने उसे घेर लिया, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वे सभी उसके पैरों में लिपटकर उसे प्रणाम करने लगे। कोई भी सर्प उसे काट नहीं सका। कुछ सर्पों ने तो उसके चरणों को चाटा, मानो वे भी उसकी भक्ति से प्रभावित हों।
कुछ समय बाद प्रह्लाद को कुएँ से बाहर निकाला गया, वह पूरी तरह सुरक्षित था। हिरण्यकश्यप का क्रोध अब असहनीय हो गया था।
भूखा-प्यासा रखने का प्रयास
जब कोई उपाय सफल नहीं हुआ, तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को भूखा-प्यासा रखने का आदेश दिया। उसका विचार था कि बिना भोजन और जल के प्रह्लाद स्वयं ही मर जाएगा।
दृश्य वर्णन
एक अंधेरी कोठरी में प्रह्लाद को बंद कर दिया गया। वहाँ न तो भोजन था, न जल। दिन-रात बीतते गए, लेकिन प्रह्लाद भगवान विष्णु का नाम जपते रहे।
उसके शरीर पर कमजोरी के लक्षण दिखने लगे, लेकिन उसके चेहरे पर अद्भुत तेज था। कहते हैं, भगवान ने अपनी माया से प्रह्लाद को अमृत का अनुभव कराया, जिससे वह भूख-प्यास से पीड़ित नहीं हुआ।
कई दिन बीत गए, लेकिन प्रह्लाद जीवित और स्वस्थ रहा। जब हिरण्यकश्यप ने कोठरी खुलवाई, तो वह यह देखकर चकित रह गया कि प्रह्लाद न केवल जीवित है, बल्कि उसकी भक्ति और भी प्रबल हो गई है।
होलिका की कथा: विस्तार से
होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी, जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। लेकिन यह वरदान केवल तब तक प्रभावी था जब वह अकेली अग्नि में प्रवेश करती। यह वरदान उसे ब्रह्मा जी से मिला था, जिन्होंने उसे एक विशेष जादुई चादर (या शॉल) दी थी, जो उसे अग्नि से बचा सकती थी.
होलिका को बचपन से ही अग्नि में न जलने का वरदान था, परंतु यह शक्ति एक विशेष अग्नि-रक्षक चादर से जुड़ी थी। यह चादर दिव्य वस्त्र के रूप में थी, जिसे पहनकर होलिका अग्नि में प्रवेश करती थी तो अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी। यह चादर ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से मिली थी, और होलिका को गर्व था कि वह कभी भी अग्नि से नहीं जलेगी।
हिरण्यकश्यप ने होलिका से कहा, “तुम्हारे पास अग्नि से बचाने वाली चादर है, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठो।” होलिका ने एक भव्य अग्निकुंड बनवाया। सैकड़ों सेवक लकड़ियाँ, घास और घृत से अग्निकुंड तैयार करने लगे। अग्नि प्रज्वलित होते ही उसकी लपटें आकाश छूने लगीं। चारों ओर भय और रहस्य का वातावरण था।
होलिका ने अपनी जादुई चादर ओढ़ी, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। प्रह्लाद शांत भाव से भगवान विष्णु का नाम जपते रहे। अग्नि की लपटें तेज़ होने लगीं। तभी एक अद्भुत घटना घटी तेज हवा चली, और होलिका की जादुई चादर उड़कर प्रह्लाद के शरीर पर लिपट गई. होलिका की शक्ति निष्क्रिय हो गई। अग्नि ने होलिका को भस्म कर दिया, जबकि प्रह्लाद सुरक्षित बाहर आ गए।
दृश्य का विस्तार
- होलिका के चेहरे पर विश्वास और अहंकार की झलक थी, जबकि प्रह्लाद के मुख पर शांति और विश्वास।
- अग्नि की लपटें जब होलिका के चारों ओर घिरीं, तब वह घबराई, किंतु प्रह्लाद भगवान विष्णु का नाम जपते रहे।
- अग्नि में बैठते समय सभा में सन्नाटा था, और जैसे ही होलिका भस्म हुई, लोग आश्चर्यचकित रह गए।
- इस दृश्य ने सभी को सिखाया कि दैवीय शक्ति और सच्ची भक्ति के आगे कोई भी माया या वरदान टिक नहीं सकता।
होलिका दहन का महत्व
यह घटना बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक बन गई। आज भी होली के पर्व पर होलिका दहन किया जाता है, जिसमें बुराई के प्रतीक होलिका का पुतला जलाया जाता है, और प्रह्लाद की भक्ति को स्मरण किया जाता है.
घटना | विस्तार |
होलिका का वरदान | अग्नि में न जलने का, परंतु अकेले में ही प्रभावी |
योजना | प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठना |
परिणाम | होलिका जल गई, प्रह्लाद सुरक्षित रहे |
प्रतीक | बुराई पर अच्छाई की विजय, होलिका दहन का पर्व |
हिरण्यकश्यप का अंत
एक दिन दरबार में, हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर प्रह्लाद को बुलाया। सभा में असुर सेनापति, दरबारी, कयाधू, गुरु शुक्राचार्य, और सैकड़ों नागरिक उपस्थित थे। पूरे महल में सन्नाटा था। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से गरजते हुए पूछा
“कहाँ है तेरा विष्णु? क्या वह यहाँ भी है?”
प्रह्लाद ने शांत भाव से उत्तर दिया
“पिताश्री, भगवान सर्वत्र हैं इस खंभे में भी।”
हिरण्यकश्यप का क्रोध और बढ़ गया। उसकी आँखों में ज्वाला थी, हाथ में गदा उठाए वह खंभे की ओर बढ़ा।
खंभे पर प्रहार और चमत्कार
महल के बीचों-बीच एक विशाल, प्राचीन खंभा था। हिरण्यकश्यप ने पूरी शक्ति से उस पर प्रहार किया। प्रहार के साथ ही खंभे में भयंकर गर्जना हुई, महल की दीवारें काँप उठीं। खंभे में दरारें पड़ गईं, और वहाँ से तेज़ प्रकाश और धुएँ के साथ एक अद्भुत, भयानक रूप प्रकट हुआ।
भगवान नरसिंह अवतार का प्रकट होना
खंभे से प्रकट हुए भगवान विष्णु का नरसिंह रूप आधा मानव, आधा सिंह। उनका मुख सिंह का था, शरीर मानव का, आँखों में तेज़ था, नाखून विशाल और पैने थे। उनकी गर्जना से पूरा महल भयभीत हो गया, असुर सैनिक भागने लगे। हिरण्यकश्यप भी क्षणभर के लिए स्तब्ध रह गया, लेकिन अहंकार में डूबा वह नरसिंह की ओर लपका।
वध का दृश्य: ब्रह्मा के वरदान की शर्तें
नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को पकड़ लिया और महल की चौखट (दरवाजे की दहलीज़) पर ले आए। यह स्थान न घर के भीतर था, न बाहर। समय संध्या का था न दिन, न रात। नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को अपनी जांघों पर बिठाया न पृथ्वी पर, न आकाश में। उन्होंने कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं उठाया, बल्कि अपने नुकीले नाखूनों से हिरण्यकश्यप का वध किया न अस्त्र, न शस्त्र। न मानव, न पशु क्योंकि नरसिंह दोनों के बीच थे।
शर्त (वरदान) | नरसिंह अवतार द्वारा पूरी हुई स्थिति |
न दिन, न रात | संध्या समय |
न घर के भीतर, न बाहर | चौखट (दहलीज़) पर |
न पृथ्वी पर, न आकाश में | जांघों पर बिठाकर |
न मानव, न पशु, न पक्षी | नरसिंह (आधा मानव, आधा सिंह) |
न अस्त्र, न शस्त्र | नाखूनों से वध |
न जीवित, न निर्जीव वस्तु से | जांघ (न पूरी तरह जीवित, न निर्जीव) |

दृश्य की भावनाएँ और वातावरण
- महल में भय, आश्चर्य और श्रद्धा का वातावरण था।
- प्रह्लाद भगवान नरसिंह के चरणों में हाथ जोड़े खड़े थे
- कयाधू के आँसू बह रहे थे माँ का दर्द और बेटे की भक्ति, दोनों की विजय।
- असुरों में भगदड़ थी, देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की।
- नरसिंह का क्रोध हिरण्यकश्यप के वध के बाद भी शांत नहीं हुआ, जब तक प्रह्लाद ने उनकी स्तुति नहीं की।
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उपसंहार: धर्म की विजय
यह दृश्य केवल एक पौराणिक घटना नहीं, बल्कि सत्य, भक्ति और धर्म की विजय का प्रतीक है। नरसिंह अवतार के माध्यम से भगवान विष्णु ने दिखाया कि अहंकार और अधर्म का अंत निश्चित है, और सच्ची भक्ति की रक्षा स्वयं ईश्वर करते हैं।
यह प्रसंग आज भी हर भक्त को यह सिखाता है कि विश्वास, साहस और सत्य के मार्ग पर चलने वाले के साथ सदा भगवान होते हैं।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः! 🙏
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